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दल-बदल विरोधी कानून काफी है या फिर देश में राइट टू रिकॉल की जरूरत है?


राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के सचिन पायलेट और उनके खेमे के विधायकों द्वारा बगावत किये जाने की वजह से जो राजनीतिक भूचाल आया हुआ था, वो हाई वोल्टेज राजनीतिक ड्रामा लगभग एक महीने के बाद खत्म हो गया है. लेकिन इस हाई वोल्टेज राजनीतिक ड्रामे की वजह से देश में दल-बदल अधिनियम की प्रासंगिकता और राइट टू रिकॉल की संभावनाओं को लेकर चर्चा शुरू हो गयी है.


आप सभी जानते है कि हमारे देश में चुनाव से पहले टिकट के लिए दल-बदल का खेल तो आम हो चुका है, लेकिन जब चुनाव जीतने के बाद भी विधायक या सांसदों की दलगत आस्था डगमगा जाए तो वोटर खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते है. हाल ही में गोवा, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश आदि जगह बड़ी संख्या में विधायकों ने सामूहिक दल-बदल किया. यानी कि अब बात सिर्फ टिकट के लिए दलबदल की नहीं, बल्कि इससे आगे की है.


लेकिन क्या देश में ऐसा कोई कानून है, जो विधायकों या सांसदों को निजी फायदे के लिए दलबदल से रोकता हो. जी हां, देश में दल-बदल विरोधी कानून है.



दल-बदल विरोधी कानून को जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि दल-बदल विरोधी कानून की हमारे देश में आवश्यकता क्यों पड़ी?


राजनीतिक दल लोगों का एक ऐसा संगठित गुट होता है, जिसके सदस्य किसी साँझी विचारधारा में विश्वास रखते हैं या समान राजनैतिक दृष्टिकोण रखते हैं. यह दल चुनावों में उम्मीदवार उतारते हैं और उन्हें निर्वाचित करवा कर दल के कार्यक्रम लागू करवाने क प्रयास करते हैं. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे अहम है और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं. लेकिन आजादी के कुछ साल बाद ही राजनीतिक दलों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी. विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगी. इस स्थिति ने राजनीतिक व्यवस्था में अस्थिरता ला दी.



1960-70 के दशक में ऐसा भी देखा गया, जब नेताओं ने एक दिन में दो-दो दल बदले. कहानी की शुरुआत 1967 से होती है. 1967 में हरियाणा विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव हुआ था और कुल 16 निर्दलीय विधायक जीतकर आए थे. और इस कहानी के मुख्य किरदार हरियाणा के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक "गया लाल" थे. उस समय हरियाणा विधानसभा में 81 सीटें थीं. चुनाव नतीजे आने के बाद हरियाणा में तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदले और गया लाल कांग्रेस में शामिल हो गए. लेकिन बाद में वे संय़ुक्त मोर्चा (यूनाइटेड फ्रंट) में चले गए. नौ घंटे बाद गया लाल का मन फिर बदला और वो फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए. गया लाल ने एक ही दिन में 3 बार अपनी पार्टी बदली थी. बाद में कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह उन्हें चंडीगढ़ प्रेस वार्ता के लिए लेकर पहुंचे तो उन्होंने गया लाल का परिचय कराते हुए पत्रकारों से कहा कि ‘गया राम अब आया राम हैं’. राव बीरेंद्र सिंह के इस बयान के बाद 'आया राम - गया राम' को लेकर तमाम चुटकुले और कार्टून बने और ‘आया राम - गया राम' स्लोगन चर्चा में आ गया. हरियाणा की पहली विधानसभा में ‘आया राम - गया राम’ की रवायत ऐसी रही कि बाद में विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा और 1968 में फिर से विधानसभा चुनाव कराने पड़ गए.


इसके बाद ही राजनीतिक दलों को मिले जानादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने और अयोग्य घोषित करने की जरूरत महसूस होने लगी. परिणामस्वरूप तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार के द्वारा 1985 में 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून अस्तित्व में आया. हालाँकि कुछ वर्ष बाद इस कानून में व्याप्त कमियों को दूर करने के लिए 2003 में 91वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया.



दल-बदल विरोधी कानून क्या है?

  • वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया. इस हेतु संविधान के चार अनुच्छेदों (101, 102, 190 और 191) में परिवर्तन किया गया और साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची (जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है) को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया. इस अधिनियम को ही "दल-बदल कानून" कहा जाता है.

  • इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की कुप्रथा को समाप्त करना था, जो कि 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी.


क्या है संविधान की दसवीं अनुसूची?

  • भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची को लोकप्रिय रूप से 'दल-बदल विरोधी कानून' (Anti-Defection Law) कहा जाता है.

  • यह ‘दल-बदल क्या है’ और 'दल-बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों' को परिभाषित करता है.

  • इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्य करार देना है, ताकि विधायिका (संसद, विधानसभा/विधानमंडल) की स्थिरता बनी रहे.


दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को कब अयोग्य घोषित किया जा सकता है?

  • यदि एक निर्वाचित सदस्य अपने राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ देता है.

  • यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.

  • यदि किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है, तथा राजनीतिक दल से उसने पंद्रह दिनों के भीतर क्षमादान न पाया हो.

  • यदि छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.

वर्तमान में दल-बदल अधिनियम (दल-बदल विरोधी कानून) के अपवाद:-

  • यदि कोई व्यक्ति स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है. इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा.

  • अगर किसी पार्टी के कम से कम दो तिहाई सदस्य अलग होकर कोई गुट बना लें या किसी दूसरी पार्टी के साथ मिल जाएं तो उनकी सदस्यता बची रहेगी. (दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों. ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर.)


नोट:- वैसे 1985 में जब यह कानून बना था तो मूल प्रावधान यह था कि अगर मूल राजनीतिक दल में विभाजन होता है और जिसके परिणामस्वरूप उस दल के एक तिहाई विधायक एक अलग समूह बनाते हैं, तो वे अयोग्य नहीं होंगे. इस प्रावधान के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर चूक हुई और कानून के जानकारों ने पाया कि दल-बदल विरोधी कानून एक उचित सुधार था, लेकिन इस अपवाद ने इस कानून की मारक क्षमता को कम कर दिया हैं. जो दल-बदल पहले एकल होता था, वो बाद में सामूहिक तौर पर होने लगा हैं. अतः वर्ष 2003 को संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा और दल-बदल कानून में बदलाव कर एक तिहाई के आंकड़े को दो तिहाई कर दिया गया.



दल-बदल अधिनियम में 2003 में 91वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया, जिसमें निम्न प्रावधान किए गए हैं:-

  • इस संशोधन के द्वारा 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें प्रावधान था कि एक तिहाई सदस्य एक साथ दल बदल कर सकते थे.

  • 75 (1 क) यह बताता है कि प्रधानमंत्री, सहित मंत्रियों की कुल संख्या, मंत्री परिषद लोक सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी.

  • 75 (1 ख) यह बताता है कि संसद या संसद के सदस्य जो किसी भी पार्टी से संबंध रखते हैं और सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित किया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है.

  • 102 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिए अयोग्य होगा.

  • 164 (1 क) यह बताता है कि मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी.

  • 164 (1 ख) यह बताता है कि किसी राज्य के किसी भी विधानमंडल सदन के सदस्य चाहे वह विधानसभा सभा सदस्य हो या विधान परिषद का सदस्य, वह किसी भी पार्टी से संबंध रखता हो और वह उस सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है.

  • 191 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह राज्य के किसी भी सदन चाहे वो विधान सभा हो या विधान परिषद, का सदस्य बनने के लिए भी अयोग्य होगा.

  • 361 (ख) - लाभप्रद राजनीतिक पद पर नियुक्ति के लिए अयोग्यता.



दल-बदल कानून लागू करने के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष या सभापति को दिए गए हैं. मूल प्रावधानों के तहत अध्यक्ष के किसी निर्णय को न्यायालय की समीक्षा से बाहर रखा गया और किसी न्यायालय को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया गया. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में नागालैंड के "किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद" में फैसला देते हुए कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा विधानसभा अध्यक्ष का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है क्योंकि ‘न्यायिक समीक्षा’ भारतीय संविधान के मूल ढाँचे में आती है, जिसे रोका नहीं जा सकता. न्यायालय ने माना था कि दसवीं अनुसूची के प्रावधान संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित सदस्यों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं करते हैं. साथ ही ये संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत किसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी नहीं करते.

ऐसा ही कुछ कर्नाटक में देखने को मिला था और वर्तमान में भी राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके मिश्रा ने कहा था कि कानून को अगर इस तरह इस्तेमाल किया जाने लगे तो यह अलग विचार रखने वालों की आवाज दबाने का हथियार बन जाएगा. उनका कहना था - ‘लोकतंत्र में असहमति की आवाज को इस तरह नहीं दबाया जा सकता.


दल-बदल विरोधी कानून के पक्ष में तर्क:-

  • दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.

  • दल-बदल विरोधी कानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद करता है.

  • पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है.

  • राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिलती है.

  • किसी पार्टी को दोषी सदस्यों के लिए दण्डात्मक कार्यवाही का अधिकार प्रदान करता है.


दल-बदल विरोधी कानून के विपक्ष में तर्क:-

  • लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्त्व है, परंतु दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है. अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि यह जनप्रतिनिधियों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपने स्वतंत्र विचार को रखने व कार्य करने से रोकता है.

  • कई बार जनप्रतिनिधि इस कानून की वजह से अपने क्षेत्र के लोगों और परिस्थितियों के अनुसार अपना मत व्यक्त न