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अब आदिवासी अपना इतिहास खुद लिखेंगे और आपके सामने पेश करेंगे।

Updated: Jan 26, 2022





भारत के आदिवासियों का इतिहास बहुत ही गौरवपूर्ण रहा है किंतु उनके गौरवशाली इतिहास के साथ इस तथाकथित सभ्य समाज ने सौतेला व्यवहार किया है। जिन आदिवासियों ने पत्थलगढ़ी के माध्यम से अपने अस्तित्व को पत्थरों पर अंकित किया, उन आदिवासियों को इतिहास की किताबों में वो जगह नहीं मिली; जिसका वो वास्तविक हक़दार था। देश के तथाकथित प्रगतिशील एवं लिबरल लोगों ने भी आदिवासी समुदाय के वीरों एवं वीरांगनाओं को कभी अपने लेखों, कहानियों एवं क़िस्सों में शामिल नहीं किया और ना ही आदिवासी मुद्दों, आदिवासी इतिहास, आदिवासी आंदोलनों, आदिवासी विद्रोहों, आदिवासी संस्कृति एवं आदिवासी साहित्य को अपने विमर्श में शामिल किया। ज़्यादातर ग़ैर-आदिवासी इतिहासकारों ने इतिहास लेखन के दौरान इतिहास का ऐसा मुखौटा तैयार किया है, जिसमें आदिवासी शामिल नहीं है। लेकिन अब इतिहास के झरोखों से वो क़िस्से आपके सामने निकल-निकल कर बाहर आ रहे है, जिन्हें इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने बदल दिया था या जिनका ज़िक्र अपने इतिहास लेखन में नहीं किया था। जब तक आदिवासी समुदाय के लोग अपने खुद के समुदाय के लिए कलम नहीं चलाएँगे तब तक मैं आदिवासी समुदाय के लोगों को अज्ञेय और चिनुआ अचेबे की पंक्तियाँ वो याद दिलाता रहूँगा, जो मुझे बेहद पसंद है।

चिनुआ अचेबे ने लिखा था- “जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएँ गायी जाती रहेंगी।”

अज्ञेय ने लिखा था- “जो पुल बनाएँगे / वे अनिवार्यत: / पीछे रह जाएँगे। सेनाएँ हो जाएगी पार / मारे जाएँगे रावण / जयी होंगे राम। जो निर्माता रहे / इतिहास में / बंदर कहलाएँगे।”



हाल ही में युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत आदिवासी युवा लेखक अनुज लुगुन ने अपनी किताब पत्थलगढ़ी में भी एक कविता में लिखा है- “हमारा कथा वाचक वह नहीं हो सकता, जो हमारी यात्रा के बारें में कुछ न जानता हो।”

इसलिए आदिवासी समुदायों के लोगों को यह ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी होगी कि वो अपने इतिहास, संस्कृति, मुद्दों, साहित्य आदि पर अपनी कलम चलाएँ और उसे दुनिया के सामने पेश करें। जो लोग अपना इतिहास जानते है और अपने पूर्वजों को पहचानते है; वो ही शख़्स बुलंद आवाज़ में अपने पूर्वजों की भाँति इंक़लाब का नारा बुलंद कर सकते है। अब आपके सामने हम आदिवासी समुदाय से जुड़े इतिहास के उन क़िस्सों, घटनाओं, विद्रोहों, आंदोलनों, और नायक/नायिकाओं का ज़िक्र करेंगे; जिन्हें इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने बदल दिया था या जिनका ज़िक्र अपने इतिहास लेखन में नहीं किया था।

इस गणतंत्र दिवस से मैं मेरी वेबसाइट ( https://www.arjunmehar.com ) और इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय जी के सानिध्य में चलने वाली वेबसाइट ( https://thecrediblehistory.com ) पर आदिवासी इतिहास से जुड़ी एक सीरीज़ “आवाज़-ए-आदिवासी” शुरू करने जा रहे है। यह सीरीज़ पिछले महीने से शुरू हो जाती लेकिन निजी व्यस्तताओं के चलते शुरू नहीं कर पाया था, इस देरी के लिए माफ़ी चाहता हूँ। आप तमाम साथी जानते है कि आदिवासी समुदाय से जुड़े कई क़िस्से मोतियों की तरह इधर-उधर बिखरें पड़े है, इन्हें एक माला के रूप में इस देश की जनता के सामने पिरोना ज़रूरी है। इसीलिए अशोक कुमार पांडेय जी के सुझाव पर आदिवासी इतिहास से जुड़ी एक किताब पर भी काम शुरू कर दिया है। मैं एक बार फिर से लेखन की दुनिया में लौट रहा हूँ, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप तमाम साथियों का प्यार और सहयोग पहले की तरह मिलेगा।

साथ में मेरी कोशिश रहेगी कि हर वीकेंड पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉ. जितेंद्र मीना के साथ Collaboration करके YouTube पर भी एक आदिवासी इतिहास और समसामयिक आदिवासी मुद्दों से जुड़ी एक सीरीज़ शुरू की जाएँ।


अंत में इतना ही कहूँगा कि हम पत्थलगढ़ी करने वाले लोग है। जो लोग आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास को मिटाने चाहते थे, उनसे कह दो- “आदिवासियों का इतिहास उन पत्थरों पर अंकित है; जो ना तो धूप में पिघलते है और ना ही बरसात में गलते है। अब आदिवासी अपना इतिहास खुद लिखेंगे और आपके सामने पेश करेंगे।”

हूल जोहार।

~ अर्जुन महर



(अर्जुन महर दिल्ली विश्वविद्यालय में लॉ के स्टूडेंट है और वामपंथी छात्र संगठन AISA से जुड़े हुए है. साथ में दो किताबें भी लिख चुके है)

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