क्या RRR फ़िल्म आदिवासी विमर्श पर खरी उतरती है?
Updated: Jun 23, 2022
साथियों हम सब जानते है कि साहित्य की तरह फिल्में भी समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं। फिल्में बातों को रखने का ऐसा माध्यम है, जो लोगों की मानवीय भावनाओं को छूता है। इसलिए ये मुद्दों को प्रदर्शित करने का एक अहम और ताक़तवर ज़रिया है।

(Photo Source :- Google)
साथियों भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में हर साल अलग भाषाओं में करीब 1000 से ज़्यादा फिल्में बनती हैं। लेकिन इनमें आदिवासियों और आदिवासियों के संघर्षों को ना के बराबर जगह दी जाती है। आदिवासी समुदाय की भारतीय आबादी में करीब 7.5 प्रतिशत की हिस्सेदारी हैं। आदिवासी समुदाय की अपनी समृद्ध संस्कृति, परम्पराएँ, भाषाएँ, लोकगीत, लोकनृत्य, मुद्दे और संघर्ष से जुड़ी अनेकों कहानियाँ है, जिनका आधार प्रकृति है। लेकिन भारतीय फिल्म जगत में कई बार आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। उनकी संस्कृति को असभ्य और बर्बर कहकर अपमानित किया जाता है।
साथियों अब बात करते है RRR फ़िल्म की। जब इस RRR फ़िल्म की घोषणा की गयी थी तो यह कहा गया था कि यह फिल्म दो रियल लाइफ फ्रीडम फाइटर अल्लूरी सीताराम राजू और कोमरम भीम से सम्बंधित है। कोमरम भीम आदिवासी गोंड समुदाय के वो नायक है जिन्होंने जल जंगल ज़मीन का नारा दिया था और ब्रिटिश हुकूमत, हैदराबाद के निज़ाम एवं ग़ैर-आदिवासी जमींदारों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था। जब इस फ़िल्म का पोस्टर जारी किया गया था तो उसमें “जल-जंगल-जमीन” के नारे को प्रमुखता से दिखाया गया था और इसी पोस्टर की वजह से आदिवासी समुदाय की इस फ़िल्म से उम्मीदें बढ़ गयी थी। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह RRR फ़िल्म सिर्फ़ एक कॉमर्शियल फ़िल्म है या फिर आदिवासी विमर्श पर खरी उतरती हुई आदिवासी समुदाय के यथार्थ से रूबरू करवाती है?
साथियों अब बात करते है कि इस फ़िल्म में कहाँ-कहाँ आदिवासियत नज़र आती है?
सबसे पहले फ़िल्म का पहला दृश्य आदिवासी समुदाय के लोकगीत, संगीत और गोदना कला से रूबरू करवाता है, जहाँ आदिवासी गोंड समुदाय की बच्ची गीत गाते हुए और एक ब्रिटिश अधिकारी की वाइफ़ के हाथों में गोदना बनाती है।
दूसरे सीन में आदिवासी समुदाय का वो भोलापन और मासूमियत नज़र आती है, जहाँ अंग्रेज अधिकारी गोंड बच्ची के माँ-बाप को बच्ची को ग़ुलाम बनाकर ले जाने के एवज़ में पैसे देते है लेकिन वो लोग इसे बच्ची के द्वारा गाये जाने वाले गीत और खूबसूरत गोदना बनाने का उपहार समझते है।
फ़िल्म तीसरी बार आदिवासियत वहाँ नज़र आती है, जहाँ कोमरम भीम जंगल में बाघ को पकड़ता है। इस दृश्य में बताया गया है कि किस तरह से आदिवासी अपने परंपरागत तरीक़ों से बेहोश करने वाली औषधि बनाते है और फिर उस बाघ को बंधक बनाते है। जब बाघ को बंधक बनाया जाता है तो नायक बाघ से माफ़ी माँगते हुए कहता भी है कि इस कृत्य के लिए माफ़ करना। यह संवाद आदिवासी समुदाय और वन्य जीवों के बीच के सहअस्तित्व को दर्शाता है।
फ़िल्म में आगे चलकर आदिवासियत से जुड़ाव वहाँ नज़र आता है जहाँ हैदराबाद के निज़ाम का सलाहकार दिल्ली में बैठे अंग्रेज अधिकारी से कहता है कि जब स्कॉट सर आदिलाबाद आए थे तो एक छोटी बच्ची को ले आए थे, वो दरअसल गोंडों की बच्ची है..! इस पर एक शख्स कहता है कि 'तो...उनके सिर पर सींग होते हैं क्या?' इसके जवाब में निज़ाम का सलाहकार कहता है कि उनका एक गडरिया होता है..! यहाँ यह गडरिया शब्द आदिवासी समुदाय की पारंपरिक व्यवस्था में मौजूद उन पंच-पटेलों की महत्ता को दर्शाता है, जिन्हें आदिवासी समुदाय के लोग गांव की सुरक्षा, कायदा- नियम, और बाकी के सामाजिक कामों की ज़िम्मेदारी से जुड़े फैसले लेने का अधिकार देते है..!
इसके बाद एक सीन में अल्लूरी सीताराम राजू को ज़हरीला साँप काट लेता है तो कोमरम भीम और अन्य आदिवासी उसे पारम्परिक उपचार की सहायता से बचाते है। इस दृश्य के माध्यम से आदिवासियों की उस पारम्परिक उपचार शैली को दिखाया जाता है, जिन्हें उन्होने सदियों से जंगलों में सॅंजो कर रखा हुआ है..!
इस फ़िल्म के एक दृश्य में आदिवासी समुदाय की टोटम प्रथा को भी दिखाया गया है, जहाँ कोमरम भीम अपने रक्षा कवच को अल्लूरी सीताराम राजू को दे देता है ताकि उसकी जान बच सकें।
फ़िल्म के अंतिम दृश्य में जब “जल-जंगल-ज़मीन” का नारा एक झंडे पर नज़र आता है तो आदिवासियत का भाव नज़र आता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या तीन घंटे की इस फ़िल्म में ये चंद दस-पंद्रह मिनट के सीन आदिवासी समुदाय के यथार्थ और आदिवासियत को उस तरह से पेश कर पाते है जैसी इस फ़िल्म से उम्मीद थी..?
सबसे बड़ी बात यह है कि इस फ़िल्म में अल्लुरी सीताराम राजू और आदिवासी नायक कोमरम भीम ना भी होते तो इस फ़िल्म की पठकथा या कथानक पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इस काल्पनिक कहानी को इन दोनों किरदारों के बिना भी प्रस्तुत किया जा सकता था। इन दोनों किरदारों को सिर्फ़ इसलिए शामिल किया गया ताकि इस फ़िल्म को हाइप मिल सकें। इन दोनों नायकों का तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में काफ़ी महत्व है।
इस फ़िल्म का जब सबसे पहले पोस्टर जारी हुआ था तो आदिवासी नायक कोमरम भीम का “जल-जंगल-ज़मीन” का नारा झंडे पर नज़र आता है लेकिन पूरी फ़िल्म कहीं भी जल-जंगल-ज़मीन से जुड़े संघर्ष के बारें में विस्तार से बात नहीं करती है। सिर्फ़ फ़िल्म ख़त्म होने के बाद अंत में तीन सेकण्ड के लिए जल-जंगल-ज़मीन का झंडा दिखाकर खानापूर्ति कर दी जाती है।
अंग्रेजों, निज़ाम और जमींदारों के ख़िलाफ़ अल्लुरी सीताराम राजू और आदिवासी नायक कोमरम भीम का जो पूरा मूवमेंट था, वो इस फ़िल्म लगभग पूर्णत: नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है।
इस फ़िल्म में सेक्युलरिज्म के तत्व नज़र आते है लेकिन अंत में कहानी रामायण के किरदारों (राम, हनुमान, सीता) का रूप लेते हुए सॉफ़्ट हिंदुत्व से रंगी नज़र आती है। आदिवासी नायक को कोमरम भीम को हनुमान के रूप में इंगित किया जाता है।
राजामौली ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ये दोनों क्रांतिकारी कुछ समय के लिए घर से दूर रहे, उस दौरान इनके साथ क्या हुआ, इस बारे में कोई डिटेल या रिकॉर्ड मौजूद नहीं है। अत: इस ब्लाइंड स्पॉट को फिक्शनल तरीक़े से एक्सप्लोर किया जाएगा। लेकिन इस फ़िल्म को देखने के बाद लगता है कि राजामौली इस ब्लाइंड स्पॉट को सिनेमाई चश्मे के माध्यम से भरने के चक्कर में इस देश की जनता के सामने एक ऐसी हिस्ट्री पेश करते है, जिसे लोग वास्तविकता समझेंगे और कहेंगे कि आदिवासी नायक कोमरम भीम हनुमान की भूमिका अदा करते हुए सीता के राम (अल्लुरी सीताराम राजू) को बचाने के लिए दिल्ली स्थित लंका में गये थे। जबकि वास्तविक इतिहास में कोमरम भीम इस दौरान असम के चाय बगानों में वहाँ के आदिवासी मज़दूरों को वहाँ के चाय बाग़ानों के मालिकों के अन्याय के ख़िलाफ़ एकजुट कर रहे थे।
आदिवासी नायक कोमरम भीम को जब हनुमान के रूप में पेश करने की कोशिश की जाती है तो मुझे अज्ञेय की ये पंक्तियाँ याद आती है - “जो पुल बनाएँगे वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएँगे। सेनाएँ हो जाएँगी पार मारे जाएँगे रावण जयी होंगे राम, जो निर्माता रहे इतिहास में बन्दर कहलाएँगे।”
साथियों मैं अब कुछ बात राजामौली जी को लेकर करना चाहूँगा। राजामौली इस देश और दुनिया के एक प्रतिष्ठित निर्देशक है लेकिन उन्हें आदिवासी मुद्दों और आदिवासी विमर्श पर थोड़ा गहनता से विचार करना चाहिए। इस फ़िल्म के पोस्टर्स में “जल-जंगल- ज़मीन” को खूब प्रमुखता से दिखाया गया लेकिन खुद राजामौली और उनकी पूरी टीम उसी स्टैचू ऑफ़ यूनिटी पर जाकर फ़िल्म का प्रमोशन कर रही थी, जिस स्टैचू ऑफ़ यूनिटी की वजह से तथाकथित विकास के नाम पर हज़ारों आदिवासियों को अपने जल-जंगल-ज़मीन से विस्थापित होना पड़ा था। इससे साफ़ पता चलता है कि वो जल-जंगल-ज़मीन से जुड़ें मुद्दों के प्रति कितने असंवेदनशील है। इसके अलावा राजामौली अपनी लोकप्रिय फिल्म ‘बाहुबली’ में कालकेय समुदाय का भयावह चित्रण करते है। उन्हें असभ्य और हिंसक दिखाते हुए कालकेय समुदाय का नकारात्मक चित्रण करते है। इसलिए राजामौली जैसे निर्देशक को इस तरह की ग़लतियाँ करने से बचना चाहिए।
मुझे न्यूटन फ़िल्म का वो दृश्य याद आता है। जिस दृश्य में मतदान केंद्र पर जब मतदान करने कोई नहीं आता तो वहाँ निराशा फैलने लगती है और लोकनाथ कहने लगता है कि कोई नहीं आने वाला..! इस बात पर न्यूटन मल्को से पूछता है कि आप भी निराशावादी हैं? तो मल्को जवाब देती है- नहीं, मैं आदिवासी हूँ..! जब हक़ीकत इतनी कड़वी हो और कोई दूर दूर तक समाधान के विकल्प ना हों, तो आप कौन से वादी रह जाएँगे? जाहिर है आप वही रह जाएँगे जो आप हैं और आप यथार्थ के करीब आ जाएँगे..!
अब कुछ लोग कहेंगे कि अर्जुन जी न्यूटन और RRR में दिन रात का फ़र्क़ है। मैं उनसे इतना ही कहूँगा कि मृणाल सेन की एक फ़िल्म है मृगया है। यह फ़िल्म आदिवासियों द्वारा लड़ी गयी स्वदेश की लड़ाई से हम सबको रूबरू करवाती है, उनके संघर्षो का वास्तविक परिचय देती है, उनकी सामजिक राजनीतिक समस्याओं से हमारा सामना करवाती है। यह फिल्म हमें उस परिवेश से जोड़ती है, जो आदिवासी समाज अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियों व् ज़मीदारी व्यवस्था से परेशान हो शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह की आवाज़ उठा रहा था।
इसलिए राजामौली भविष्य में आदिवासी समुदाय को ध्यान में रखकर कोई यथार्थवादी फ़िल्म बनाएँ तो उन्हें मृगया, न्यूटन, आक्रोश, हज़ार चौरासी की माँ, तमस, हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, चक्रव्यूह जैसी फ़िल्मों के निर्देशकों से प्रेरणा लेनी चाहिए जिन्होंने अपनी फ़िल्मों के संवादों और दृश्यों के माध्यम से आदिवासी जीवन के संघर्ष और जिजीविषा को दुनिया के सामने पेश किया।
अंत में मैं यही कहूँगा कि यह RRR फ़िल्म व्यावसायिक रूप से एक बेहतरीन मनोरंजक फ़िल्म है लेकिन यह आदिवासियों के मुद्दों, आदिवासियों के संघर्षों और आदिवासियत को दिखाने में सिर्फ़ दस प्रतिशत सफल होती है। हाँ यह ज़रूर है कि इस फ़िल्म की वजह से देश और दुनिया के लोग अल्लुरी सीताराम राजू और आदिवासी गोंड समुदाय के नायक कोमरम भीम के नाम से रूबरू हुए है। ये वो नायक है; जिन्हें इतिहास की किताबों में वो जगह नहीं दी गयी, जिसके वो वास्तविक हक़दार थे।
~ अर्जुन महर

(अर्जुन महर दिल्ली विश्वविद्यालय में लॉ के स्टूडेंट है और वामपंथी छात्र संगठन AISA से जुड़े हुए है. साथ में दो किताबें भी लिख चुके है)
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