वीर बुधु भगत:- वो आदिवासी नायक, जिसने “लरका विद्रोह” नामक ऐतिहासिक आन्दोलन का नेतृत्व किया..!
भारत देश के अधिकतर लोग सोचते है कि 1857 का विद्रोह अग्रेजों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह था, जबकि वास्तविकता यह है कि 1857 के विद्रोह से पूर्व देश में कई आदिवासी विद्रोह हुए थे। लेकिन इतिहास के पन्नों में उन आदिवासी विद्रोहों (पहाड़िया विद्रोह, चुआर विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, हो एवं मुंडा विद्रोह, भील विद्रोह आदि) और उन विद्रोहों से जुड़े वीरों एवं वीरांगनाओं को वो जगह नहीं मिल पायी, जिसके वो वास्तविक हक़दार थे।
इतिहासकार बिपिन चंद्रा ने 1857 से पूर्व के विद्रोहों को तीन व्यापक रूपों [ जन विद्रोह, जनजातीय (आदिवासी) विद्रोह और किसान आंदोलन ] में देखा। [1] लेकिन इन तीनों में से सबसे ज़्यादा प्रभाव आदिवासी आंदोलनों का नज़र आता है क्योंकि ये अधिक निरंतर, व्यापक और हिंसक थे।
आज हम अपनी “आवाज़-ए-आदिवासी” सीरीज़ में लरका विद्रोह (कोल विद्रोह) के आदिवासी नायक “वीर बुधु भगत” की बात करेंगे; जिन्होंने अपने जल, जंगल, ज़मीन, स्वाभिमान एवं अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया और शहादत दी।

(Photo Credit :- क्रांति योद्धा / Instagram ID:- @TheKrantiYoddha)
कौन थे वीर बुधु भगत?
वीर बुधु भगत का जन्म आदिवासी उराँव समुदाय में 17 फरवरी, 1792 को झारखंड राज्य के रांची जिले के चान्हो ब्लॉक के सिलागाई (Silagai/Silagain) गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम शिबू सुकरा भगत और माता का नाम बालकुन्दरी भगत था। बुधु भगत के तीन पुत्र (हलधर, गिरधर और उदयकरण) और दो पुत्रियाँ (रूनियाँ और झुनियाँ) थीं। [2] बुधु भगत ने 1831-32 में छोटा नागपुर को अंग्रेजी सरकार और ज़मींदारों के अत्याचार से मुक्त करवाने के लिए में “लरका विद्रोह” नामक ऐतिहासिक आन्दोलन का सूत्रपात्र किया।
लरका विद्रोह या कोल विद्रोह (1831-1832):-
छोटा नागपुर के पठार इलाकों में आदिवासी समुदायों के लोग सदियों से शांतिपूर्वक रह रहे थे। उनकी आजीविका का मुख्य आधार खेती एवं जंगल थे और जल- जंगल-ज़मीन उनके नैसर्गिक अधिकार थे। लेकिन मुगल काल में मुसलमान एवं सिक्ख व्यापारीयों का आगमन बड़ी संख्या में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में हुआ और वो यहाँ बसने लगे। ग़ैर-आदिवासी लोगों ने धीरे-धीरे आदिवासियों की जमीन पर अपना अधिकार जमाना आरंभ कर दिया लेकिन मुगल काल तक आदिवासी समुदाय के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर इन परिवर्तनों का कोई व्यापक असर नहीं पड़ा। 1765 में मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कम्पनी को प्रदान की और अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही आदिवासी समुदाय के लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आना शुरू हो गया।[3]
कालांतर में अंग्रेज़ी सरकार द्वारा कृषि का विस्तार एक व्यवस्थित रूप में किया गया, जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी समुदाय के लोग धीरे-धीरे अपनी जमीन को खोने लगे। साथ में वनों में झूम कृषि को प्रतिबंधित कर दिया गया फलतः आदिवासियों की समस्याओं में वृद्धि हुयी। अंग्रेजों की बंदोबस्त व्यवस्था ने आदिवासियों के बीच संयुक्त स्वामित्व की प्रथा को प्रभावित किया और उनके सामाजिक संघटन को छिन्न-भिन्न किया। अंतत: स्थायी बंदोबस्त के कारण आदिवासी क्षेत्रों में जमींदार एवं महाजन रूपी एक सबल वर्ग सामने आया। फिर अंग्रेजों ने ज़मींदारों और महाजनों के साथ मिलकर आदिवासी समुदायों के लोगों का आर्थिक शोषण शुरू कर दिया। लगान की रकम अदा न करने पर आदिवासियों की जमीन को नीलाम कर दिया जाता था या फिर तैयार फसल को जमींदार एवं महाजन जबरदस्ती उठा कर ले जाते थे। इसी शोषण की वजह से आदिवासी समुदाय के लोगों का आक्रोश ज़मींदारों, महाजनों और अंग्रेजों के विरुद्ध दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। [4]
वैसे विद्रोह के पनपने का सर्वप्रमुख तात्कालिक कारण अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों की भूमियों को दिकुओं (ग़ैर-आदिवासियों) को हस्तांतरित किया जाना और इलाके के ज़मींदारों एवं महाजनों द्वारा भूमि कर को अत्यधिक बढ़ाना था। इसी वजह से आदिवासी समुदायों के लोग अपनी सत्ता और भूमि से वंचित होने लगे और वो इस शोषण से मुक्ति चाहते थे। अंतत: 11 दिसंबर 1831 को अपनी जमीन और जंगल की रक्षा के लिए आदिवासियों ने वीर बुधु भगत के नेतृत्व में अंग्रेजों, ज़मींदारों एवं महाजनों से लोहा लेने का संकल्प लिया और लरका विद्रोह का ऐलान किया।
हम यह यह कह सकते है कि अपनी जमीन खोने, न्याय न मिलने और गंभीर उत्पीड़न से उत्पन्न असंतोष की वजह से लरका विद्रोह छोटा नागपुर पठार क्षेत्र में शुरू हुआ और इस विद्रोह में मुंडा, उराँव, हो आदिवासी समुदायों ने हिस्सा लिया। छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा, उराँव, हो, महाली आदि आदिवासी समुदाय निवास करते हैं; इन्हें मैदानी लोग 'कोल' कहते हैं। [5] इसलिए इस विद्रोह को कोल विद्रोह भी कहा गया।
इस विद्रोह का स्वरूप आर्थिक व राजनैतिक था। वीर बुधु भगत ने गांवों में घूम-घूमकर अंग्रेजों जमींदारों, और महाजनों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए लोगों को प्रेरित किया। बुधु भगत के कार्यों, संगठनात्मक क्षमता एवं विचारों से प्रभावित होकर आदिवासी समुदायों के लोगों ने हाथों में तीर, धनुष, तलवार, कुल्हाड़ी जैसे पारम्परिक हथियार उठा लिए और इस आंदोलन से जुड़ने लगे। बुधु भगत ने अपने साथियों को गुरिल्ला (छापामार) युद्ध का प्रशिक्षण देकर, उन्हें गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार किया। धीरे-धीरे यह विद्रोह राँची, सिंहभूम, पलामू, हजारीबाग, मानभूम आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैल गया और जल्दी ही छोटा नागपुर की जनता का आंदोलन बन गया। आदिवासी समुदाय के लोगों ने त्वरित कार्यवाही करते हुए सबसे पहले जमींदारों एवं महाजनों की संपत्ति को नष्ट दिया। साथ में सरकारी खजाने को लूटा और कचहरियों एवं थानों पर आक्रमण किया।
लूट-मार और तबाही इस विद्रोह के प्रमुख तत्व थे। विद्रोह दिनों दिन हिंसक होता जा रहा था, जिसकी वजह से ज़मींदारों एवं महाजनों में भय व्याप्त था। बुधु भगत को अंग्रेजों ने पकड़ने की कई कोशिश की लेकिन बुधु भगत छापामार युद्ध में माहिर थे, इसलिए अंग्रेज उन्हें पकड़ने में विफल रहे। फिर ब्रिटिश सरकार ने बुधु भगत को पकड़ने लिए 1000 रुपए की इनामी राशि की घोषणा की। बुधु भगत झारखंड के पहले क्रांतिकारी थे, जिन्हें पकड़ने के लिए 1000 रुपये का इनाम घोषित किया गया था। [6] लेकिन कोई भी इस पुरस्कार के लालच में नहीं आया और अंग्रेजों की यह नीति भी बुधु भगत को पकड़ने में विफल रही।
बुधु भगत की शहादत:-
बुधु भगत और कोल विद्रोह के व्यापक प्रभाव का अंदाजा अंग्रेजों को हो गया था, इसलिए 1832 की शुरुआत में अंग्रेजों ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बाहरी मदद माँगी। वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों ने बनारस, दानापुर, बैरकपुर आदि स्थानों से सेना की कई टुकड़ियाँ छोटा नागपुर भेजी और कई ग़ैर-आदिवासी राजाओं ने भी अंग्रेजों को सैन्य शक्ति उपलब्ध करवायी। जनवरी 1832 में छोटा नागपुर के बाहर से सैन्य बल का आना हुआ शुरू हुआ और देखते ही देखते कुछ ही दिनों में छोटा नागपुर की धरती सैनिकों और घु़ड़सवारों से भर गयी। शीर्ष ब्रिटिश अधिकारियों ने कैप्टन इम्पे को बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़ने की जिम्मेदारी दी।
कैप्टन इम्पे को गुप्तचरों से सूचना मिली कि बुधु भगत लोहरदगा के निकट टिको गांव में जनसभा करने वाले हैं, तब वे अपनी विशाल सेना लेकर टिको पहुँचे और पूरी भीड़ को घेर लिया। वहाँ काफ़ी खोजबीन करने के बाद भी बुधु भगत नहीं मिले तो ग्रामीणों पर दबाव डाला गया, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। इस दौरान अंग्रेज सैनिकों और ग्रामीणों में संघर्ष हुआ और इस संघर्ष में बुधु भगत के दो बड़े पुत्र (हरधर और गिरधर), दोनों पुत्रियाँ (रूनियाँ और झुनियाँ) और कुछ ग्रामीण शहीद हुए। आज भी इनकी याद में यहाँ 2 फरवरी को शहीद दिवस मनाया जाता है। इस दौरान कैप्टन इम्पे ने विभिन्न गावों के लगभग 4 हजार ग्रामीणों को बन्दी बना लिया। उन 4,000 हजार ग्रामीणों को बन्दी बनाकर कैप्टन इम्पे की सेना टेढ़ी-मेढ़ी घाटियों से होते हुए पिठौरिया शिविर के लिए रवाना हुई। लेकिन बुधु भगत और अन्य आदिवासी योद्धाओं ने घाटी में ही बंदियों को मुक्त करा लिया।कैप्टन इम्पे ने ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की थी और कैप्टन इस शिकस्त से बौखला गया। [7]
13 फरवरी 1832 कैप्टन इम्पे को सूचना मिली की बुधु भगत और कुछ विद्रोही सिलागाई गाँव में मौजूद है तो इम्पे के नेतृत्व में पांच कंपनियों ने सिलागाई गांव को पूरी तरह से घेर लिया। वीर बुधु भगत के नेतृत्व में सैकड़ो विद्रोहियों ने अंग्रेजों पर तीरों की वर्षा शुरू कर दी और परंपरागत हथियारों से अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया। लेकिन परम्परागत आदिवासी हथियार अंग्रेजों की सेना के आधुनिक हथियारों का सामना करने में असमर्थ रहे। इस लड़ाई में कोल विद्रोह के नायक बुधु भगत सहित 300 से अधिक आदिवासी योद्धाओं ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए अपने जल, जंगल, ज़मीन, स्वाभिमान और अधिकार के लिए शहादत दी।
वीर बुधु भगत और कोल विद्रोह का महत्व:-
वीर बुधु भगत ने अंग्रेजों, जमींदारों और महाजनों के अन्याय के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए जो विद्रोह किया था, उस विद्रोह को अंग्रेजों ने आधुनिक हथियारों के बल ज़रूर खामोश कर दिया। लेकिन बुधु भगत द्वारा शुरू की गयी क्रांति की मशाल की लौ कभी धीमी नहीं पड़ी। इसके बाद गंगा नारायण ने 1832 में इस विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह रुक-रुककर 1848 तक चलता रहा लेकिन बाद में इसे कुचल दिया गया। [8]
कोल विद्रोह का परिणाम यह निकला कि अंग्रेजो ने आदिवासियों को स्वशासन की व्यवस्था मंजूर की और भूमि सुरक्षा के लिए सीएनटी एक्ट बनाया गया। साथ में बंगाल रेगुलेशन 1833 एवं विल्किंसन रूल में स्थानीय ग्राम सभा एवं उनकी स्थानीय परम्पराओं को मान्यता दी गयी, जिन्हें भारतीय संविधान में भी रखा गया गया है।
कोल विद्रोह की एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि कोल विद्रोह के योद्धाओं का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और वो अन्य आदिवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गये। आगे चलकर इसी क्षेत्र में संथालों का व्यापक आंदोलन देखने को मिला।
मैं इतना ही कहूँगा कि सिलागाई टोंगरी के वीर बुधु भगत की वीरता और कोल विद्रोह को इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों में जगह नहीं दी लेकिन वीर बुधु भगत की वीरता की कहानी आज भी लोकगीतों और लोक कथाओं के माध्यम से आज भी उन जंगलों में सुनी जाती हैं; जहाँ उन्होंने अपने जल, जंगल, ज़मीन, स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा के लिए शहादत दी थी। हर आदिवासी युवा को वीर बुधु भगत और कोल विद्रोह के योद्धाओं की शहादत से प्रेरणा लेते हुए उनके मार्गों पर चलने का संकल्प लेना चाहिए और जल, जंगल, ज़मीन, स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करना चाहिए।
अंत में मैं अपनी बात सुश्री कमला लकड़ा के शब्दों से ख़त्म करना चाहता हूँ। सुश्री कमला लकड़ा लिखती है - “इतिहासकारों ने आदिवासी समुदाय के इतिहास को हमेशा नजर अंदाज किया है। भारत की आजादी की लड़ाई में देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले आदिवासी समुदाय के वीरों और वीरांगनाओं के अधिकांश नाम गुमनामी के ढेर में छिपा दिए गये है। इन गुमनाम आदिवासी शहीदों में कुछ नाम ऐसे है, जिनका त्याग और बलिदान इतिहास में चर्चित नामों में से किसी भी कसौटी पर कम नहीं है। लेकिन उन आदिवासी शहीदों को वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो वास्तविक हक़दार है। इस देश के आदिवासी वीरों और वीरांगनाओं का इतिहास अभी भी पूरी तरह से आदिवासी समुदाय और देश-दुनिया के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। अंधकार में पड़े ये आदिवासी योद्धा ऐसे है, जिनका न कोई इतिहास लिखा गया और न ही उनकी संतानों ने कभी अपने पुरखों की गौरव गाथाएँ पढ़ी। यही कारण है कि आदिवासी समुदाय के कई ऐतिहासिक आंदोलन गुमनामी के घोर अंधेरे में खो चुके हैं। यह आश्चर्य की बात है कि कोल विद्रोह जैसे एक बहुत बड़े जन आन्दोलन और बुधु भगत जैसे आदिवासी नायक को इतिहासकारों ने नजर अंदाज किया।”
हूल जोहार..!
~ अर्जुन महर

( फ़ोटो:- वीर बुधु भगत )
संदर्भ:-
[1] आधुनिक भारत का इतिहास - स्पेक्ट्रम (पेज नम्बर 138)
[2] सुश्री कमला लकड़ा, शोधार्थी, टी.आर.एल., राँची वि.वि., राँची
[3] The Kol rising of Chotanagpur (1831-33) by Jagdish Chandra Jha (1958)
[4] The Kol Tribe of Central India by Griffiths, Walter G. (1946)
[5] भारतीय इतिहास एवं राष्ट्रीय आंदोलन - दृष्टि पब्लि