वो आदिवासी क्रांतिकारी महिला, जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने “पहाड़ों की बेटी” और “रानी” की उपाधि दी
इतिहास से जुड़े दस्तावेजों में तथाकथित इतिहासकारों ने आदिवासी समुदाय के वीरों और वीरांगनाओं को हमेशा हाशिए पर रखा है। स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र होते ही कई नाम हमारे ज़हन में कौंध जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं था लेकिन फिर भी वे हमारे लिए गुमनाम चेहरे बने हुए हैं। इसी कड़ी में एक नाम रानी गाइदिन्ल्यू का है। आज हम हमारी “आवाज़-ए-आदिवासी” सीरीज़ में रानी गाइदिन्ल्यू (रानी गिडालू) की बात करेंगे; जिन्हें “देवी का अवतार”, “देवी चेराचमदिन्ल्यू (Goddess Cherachamdinliu)”, “उत्तर-पूर्व की लक्ष्मीबाई”, “पहाड़ों की बेटी”, “अपने लोगों की रानी” और “नागालैंड की लक्ष्मीबाई” भी कहा जाता है। रानी गाइदिन्ल्यू ने किशारोवस्था में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाकर ना केवल अंग्रेजों से संघर्ष किया बल्कि ताउम्र अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों को उनका हक़ दिलाने की लड़ाई भी लड़ती रहीं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मणिपुर, नागालैंड और असम के इलाक़ों में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व किया था।

(Photo Credit :- क्रांति योद्धा / Instagram ID:- @TheKrantiYoddha)
रानी गाइदिन्ल्यू 13 वर्ष की उम्र में हेराका आंदोलन से जुड़ीं :-
रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के तामेंगलोंग (Tamenglong) जिले के तौसेम उपखंड के नुंगकाओ (लोंगकाओ) गांव में हुआ था। वो मणिपुर के ज़ेलियांगरोंग कबीले (Zeliangrong Tribe) के तीन कबीलों में से एक रोंगमेई (Rongmei) कबीले से थी।
रानी गाइदिन्ल्यू अपने चचेरे भाई हैपोउ जदोनांग (Haipou Jadonang) से काफ़ी प्रभावित थीं। हैपोउ जदोनांग नागा आदिवासी समुदाय के आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थे। हैपोउ जदोनांग ने हेराका (Heraka Movement or Zeliangrong Movement) नामक सामाजिक - धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की थी। हेराका का मतलब होता “शुद्ध” होता है। जदोनांग ने नागा आदिवासी समुदाय को एकजुट करने और अपने रीति-रिवाजों एवं आदिवासी धार्मिक मान्यताओं को ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव से बचाने के लिए इस आंदोलन की शुरुआत की थी। लेकिन सामाजिक और धार्मिक सुधार के उद्देश्य से शुरु हुआ यह आंदोलन बाद में एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया। यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में इसलिए तब्दील हुआ क्योंकि नागा आदिवासी समुदाय पर अंग्रेज अत्याचार कर रहे थे और साथ में नागा इलाकों में ब्रिटिश हुकूमत का हस्तक्षेप भी लगातार बढ़ रहा था। इसी वजह से हेराका आंदोलन का लक्ष्य नागा आदिवासी समुदाय का फिर से उत्थान करना और मणिपुर एवं नागा आबादी वाली क्षेत्रों से ब्रिटिश शासन का अंत कर स्वशासित नागा राज पुनर्स्थापित करना बन गया। हैपोउ जदोनांग के विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर रानी गाइदिन्ल्यू भी मात्र 13 वर्ष की उम्र में हेराका आंदोलन से जुड़ गयी।
जदोनांग की शहादत के बाद रानी गाइदिन्ल्यू के हाथों में आंदोलन की कमान :-
नागा आदिवासी समुदाय के इलाक़ों में जब भी कोई अंग्रेज अधिकारी आता था तो गाँव वालों को उनके लिए खाना बनाना पड़ता था और उन्हें मुफ़्त में अपने कंधे पर उठाकर जगह-जगह ले जाना पड़ता था। हैपोउ जदोनांग और रानी गाइदिन्ल्यू ने अंग्रेज अधिकारियों द्वारा जबरन हाउस टैक्स लेने और पोर्टर का काम करवाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। उन्होंने मिलकर विरोध किया किया और कहा कि वो न तो टैक्स देंगे और न ही पोर्टर का काम करेंगे। हैपोउ जदोनांग के नेतृत्व में आंदोलन आग की तरह आसपास के क्षेत्रों में भी फैलने लगा। इस आंदोलन को ब्रिटिश अधिकारियों ने चुनौती के तौर पर देखा।
जनवरी 1931 में, अंग्रेज अधिकारियों को रिपोर्ट मिली कि हैपोउ जदोनांग उनके खिलाफ युद्ध की घोषणा करने की योजना बना रहा है और लोगों से करों का भुगतान नहीं करने की अपील भी कर रहा है। साथ में अंग्रेज अधिकारियों को नागा गांवों में गुप्त बैठकों और बंदूकों के संग्रह की खबरें भी मिली। फरवरी 1931 तक, क्षेत्र के सभी ब्रिटिश अधिकारी इस बात पर सहमत हो गए कि जदोनांग के आंदोलन को स्थायी रूप से दबाना होगा। हैपोउ जदोनांग अपने आंदोलन का और विस्तार कर पाते, उससे पहले ही ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों के कारण उन्हें फ़रवरी 1931 में गिरफ़्तार कर लिया गया। हैपोउ जदोनांग को उनकी गिरफ्तारी के एक महीने बाद 19 मार्च को इम्फाल लाया गया। 13 जून 1931 को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा एक मुकदमे में हैपोउ जदोनांग को हत्याओं का दोषी घोषित किया गया। हैपोउ जदोनांग को 29 अगस्त 1931 को इम्फाल में फांसी दी गयी।
इस तरह हैपोउ जदोनांग की शहादत के बाद आदिवासी समुदाय के लोगों ने रानी गाइदिन्ल्यू को जदोनांग की आध्यात्मिक एवं राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया। इसी वजह से रानी गाइदिन्ल्यू के हाथों में आंदोलन की कमान आयी और वो मात्र 16 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सरकार के विरोध में लड़ने वाले एक छापामार दल की नेता बनी।

(हैपोउ जदोनांग; 10 जून 1905 को जन्म और 29 अगस्त 1931 को शहादत)
हैपोउ जदोनांग की शहादत के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने लोगों को एकजुट कर ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया:-
हैपोउ जदोनांग की शहादत के बाद आंदोलन की कमान रानी गाइदिन्ल्यू के हाथों में आ गयी। बेहद कम उम्र में आंदोलन की बागडोर संभालने वाली गाइदिन्ल्यू ने शुरू से बेहद आक्रामक रुख अपनाया। रानी गाइदिन्ल्यू ने नागा समुदाय के कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेजों के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कदम उठाए। परिणामस्वरूप कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल हो गए। रानी गाइदिन्ल्यू अपने आदिवासी समुदाय के धार्मिक रीति-रिवाजों में विश्वास रखती थीं इसलिए आदिवासी क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा कराए जा रहे धर्म परिवर्तन का भी उन्होंने जमकर विरोध किया। रानी गाइदिन्ल्यू हर हाल में अपनी संस्कृति, भाषा, अपनी मिट्टी की रक्षा करना चाहती थी इसलिए उन्होंने कहा - “अपनी संस्कृति, भाषा और मिट्टी को खोने का मतलब होगा, अपनी मूल पहचान को खो देना। हम स्वतंत्र हैं, गोरे हम पर राज नहीं कर सकते।” रानी गाइदिन्ल्यू के तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर आदिवासी समुदाय के लोगों ने उन्हें “देवी का अवतार” और “देवी चेराचमदिन्ल्यू” कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया।
रानी गाइदिन्ल्यू ने अपने आंदोलन को भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। उन्होंने मणिपुर क्षेत्र में गांधीजी के संदेशों को भी प्रसारित किया। उन्होंने अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों से अंग्रेजों को कर (Tax) नहीं देने की अपील की। रानी गाइदिन्ल्यू से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोग आंदोलन से जुड़ने लगे और लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत को किसी भी तरह का कर देने से मना कर दिया।
गुरिल्ला युद्ध में दक्ष रानी गाइदिन्ल्यू ने 17 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान करते हुए गुरिल्ला युद्ध की घोषणा की। रानी गाइदिन्ल्यू ने अपने लड़ाकों के साथ सबसे पहले ब्रिटिश फ़ौज के ख़िलाफ़ एक बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया। रानी गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों की तरफ़ से हुई कार्रवाई के बाद ब्रिटिश फ़ौज ने कई बार उन्हें पकड़ने के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजीं। लेकिन अंग्रेजों को हमेशा निराशा ही हाथ लगी क्योंकि गुरिल्ला युद्ध में दक्ष रानी गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाके आसानी से बच निकलते थे। रानी गाइदिन्ल्यू द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने कई गांवों के लोगों को परेशान किया, लेकिन वे आदिवासियों के हौसलों को ध्वस्त नहीं कर पाए।
फिर ब्रिटिश अधिकारियों की तरफ़ से घोषणा की गयी कि जो भी शख़्स या गाँव रानी गाइदिन्ल्यू को पकड़वाने में मदद करेगा उन्हें 500 रुपए नकद दिए जाएँगे और उनसे 10 वर्षों तक कोई टैक्स नहीं वसूला जाएगा। लेकिन स्थानीय लोग रानी गाइदिन्ल्यू के साथ थे इसलिए इस घोषणा का अंग्रेजों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
फिर असम के गवर्नर ने नागा हिल्स के डिप्टी कमिश्नर जेपी मिल्स (JP Mills) के नेतृत्व में असम राइफल्स की तीसरी और चौथी बटालियन को रानी गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों को पकड़ने के लिए भेजा। रानी गाइदिन्ल्यू एवं उनके लड़ाकों का असम राइफल्स के सैनिकों के साथ 16 फरवरी 1932 को उत्तरी कछार हिल्स (North Cachar Hills) में और 18 मार्च 1932 को हंगरम (Hangrum) गाँव में सशस्त्र संघर्ष हुआ। इन दोनों जगह पर असम राइफल्स के सैनिकों को मुँह की खानी पड़ी और वो रानी गाइदिन्ल्यू एवं उनके लड़ाकों को पकड़ने में असफल रहें।
अक्टूबर 1932 में रानी गाइदिन्ल्यू अपने लड़ाकों के साथ पोलोमी (Pulomi) गाँव में पहुँची। यहां उन्होंने एक लकड़ी के किले का निर्माण शुरू किया। जब किला निर्माणाधीन था, तब अंग्रेजों को इसकी भनक लगी। यह क़िला बनकर तैयार होता, इससे पहले ही 17 अक्टूबर, 1932 को कैप्टन मैकडॉनल्ड (Captain MacDonald) के नेतृत्व में असम राइफल्स की एक टुकड़ी ने पोलोमी गाँव पर आक्रमण कर दिया। रानी गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाके इस आक्रमण के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे, इसलिए उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
कैप्टन मैकडॉनल्ड ने 17 अक्टूबर 1932 को रानी गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों को केनोमा (Kenoma) गाँव के पास बिना किसी प्रतिरोध के गिरफ्तार कर लिया। रानी गाइदिन्ल्यू को इम्फाल ले जाया गया, जहाँ उन पर 10 महीने तक मुकदमा चला। 10 महीने के मुकदमे के बाद रानी गाइदिन्ल्यू को हत्या, हत्या की साज़िश और हत्या के लिए उकसाने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। प्रशासन ने रानी गाइदिन्ल्यू के ज्यादातर सहयोगियों को या तो मार दिया या जेल में डाल दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि रानी गाइदिन्ल्यू ने जो गुरिल्ला युद्ध शुरू किया था, वो लगभग थम सा गया।
जवाहरलाल नेहरू रानी गाइदिन्ल्यू से मिलने शिलांग जेल गये :-
जवाहरलाल नेहरू को रानी गाइदिन्ल्यू के संघर्ष के बारे में पता चला तो वह उनसे बेहद प्रभावित हुए। 1937 में जवाहरलाल नेहरू ने शिलांग जेल में रानी गाइदिन्ल्यू से मुलाकात की। जवाहरलाल नेहरू ने रानी गाइदिन्ल्यू को “पहाड़ों की बेटी” कहकर सम्बोधित किया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में उनकी भूमिका को स्वीकार करते हुए उनके अदम्य साहस के लिए उन्होंने रानी गाइदिन्ल्यू को “रानी (Queen)” एवं “अपने लोगों की रानी” की उपाधि दी। इस दौरान नेहरू ने रानी गाइदिन्ल्यू को जल्द से जल्द जेल से रिहा करवाने का वचन भी दिया।
1938 के ऐतिहासिक हरिपुरा अधिवेशन में भी रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई का प्रस्ताव पारित किया गया। नेहरू ने रानी गैडिनल्यू की रिहाई के लिए ब्रिटिश सांसद नैंसी एस्टोर (Nancy Astor) को पत्र भी लिखा। लेकिन भारत के राज्य सचिव (Secretary of State for India) ने उनके अनुरोध को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अगर रानी को रिहा किया गया तो आंदोलन फिर भड़क सकता है।
भारत की आज़ादी तक जवाहरलाल नेहरू ने रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वो सभी प्रयास विफल रहे।
देश की आजादी और रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई :-
जब 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, तब नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिन्ल्यू को तुरा जेल से रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई से पहले उन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों (शिलांग, गुवाहाटी, आइजॉल और तूरा) में काटे थे। रिहाई के बाद वो अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों के उत्थान के लिए कार्य करने लगी। 1953 में रानी गाइदिन्ल्यू तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु से इम्फाल में मिलीं और रिहाई के लिए आभार प्रकट किया। बाद में रानी गाइदिन्ल्यू अपने ज़ेलियांगरोंग समुदाय के विकास और कल्याण से सम्बंधित बातचीत करने के लिए नेहरु से दिल्ली में भी मिलीं।
रानी गाइदिन्ल्यू ने नागा नेशनल काउंसिल (एन.एन.सी.) का विरोध किया क्योंकि ये काउंसिल नागाओं के लिए अलग देश की मांग कर रही थी और नागालैंड को भारत से अलग करना चाहती थी। जबकि रानी गाइदिन्ल्यू ने ज़ेलियांगरोंग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग ज़ेलियांगरोंग क्षेत्र की मांग की। एन.एन.सी. से जुड़े लोगों ने रानी गाइदिन्ल्यू का इस बात के लिए भी विरोध किया क्योंकि रानी गाइदिन्ल्यू अपने नागा आदिवासी समुदाय से जुड़े रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही थीं। आज़ादी के बाद नागा कबीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण हालात इतने बिगड़े कि रानी गाइदिन्ल्यू को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत होना पड़ा। 1965 में रानी गाइदिन्ल्यू के समर्थकों ने 9 नागा लीडर्स की हत्या की। भारत सरकार के साथ हुए एक समझौते के बाद रानी गाइदिन्ल्यू 6 साल बाद 1966 में मुख्यधारा में लौट आयी। 21 फ़रवरी 1966 को रानी गाइदिन्ल्यू दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिलीं और उन्होंने एक पृथक ज़ेलियांगरोंग प्रशासनिक इकाई की माँग की।
रानी गाइदिन्ल्यू का निधन :-
रानी गाइदिन्ल्यू ने ताउम्र अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों को हक दिलाने के लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि अपनी संस्कृति, भाषा और मिट्टी को खोने का मतलब होगा, अपनी मूल पहचान को खो देना। अपने आदिवासी समुदाय की संस्कृति को बचाए रखने के लिए उन्होंने ना सिर्फ़ ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष किया बल्कि आज़ादी के बाद अपने ही समुदाय के अलगाववादियों का भी सामना किया। वर्ष 1991 में वे अपने जन्म-स्थान लोंग्काओ लौट गयीं, जहाँ पर 78 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1993 को उनका निधन हो गया।